भारत विखंडन – द्रविड़ और दलित मामलों में पश्चिम का हस्तक्षेप
यह किताब (भारत विखंडन/Breaking India)
पिछले दशक के मेरे उन तमाम अनुभवों का नतीजा है जिन्होने मेरी शोध और
बौद्धिकता को प्रभावित किया है। ९० के दशक की बात है, प्रिंसटन
विश्वविद्यालय के एक अफ्रीकन-अमरीकन विद्वान ने बातों बातों में ज़िक्र किया
कि वे भारत के दौरे से लौटे हैं जहाँ वे ‘एफ्रो-दलित’ प्रोजेक्ट पर काम
करने गए थे।
तब मुझे मालूम चला कि यह अमरीका द्वारा
संचालित तथा वित्तीय सहायता-प्रदान प्रोजेक्ट भारत में अंतर्जातीय-वर्ण
सम्बन्धों तथा दलित आंदोलन को अमरीकन नज़रिए से देखने का प्रकल्प है । एफ्रो-दलित पोजेक्ट दलितों को ‘काला’ तथा ग़ैर -दलितों को ‘गोरा’ जताता है।
अमरीका के जातिवाद, दासत्व परंपरा तथा
काला-गोरा सम्बन्धों के इतिहास को यह प्रकल्प सीधे सीधे भारतीय समाज पर
अक्स कर देने की योजना है । हालांकि भारत में नए जाति समीकरणों और उनके
आपसी द्वन्दों ने मुद्दतों से दलितों के खिलाफ एक अलग मनोभाव पैदा कर दिया
है लेकिन इसके बावज़ूद इसका अमरीका के ‘दासत्व-इतिहास’ के साथ दूर दूर तक
मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। अमरीकन इतिहास से प्रेरित इस एफ्रो-दलित
प्रोजेक्ट की कोशिश दलितों को दूसरी जातियों द्वारा सताए गए- ऐसा जता कर
उनको एक अलग पहचान और तथाकथित सक्षमता प्रदान करना है।
अपनी तौर पर मैं ‘आर्य’ लोगों के बारे में
भी अध्ययन कर रहा था- ये जानने के लिए कि वे कौन थे और क्या संस्कृत भाषा
और वेद को कोई बाहरी आक्रान्ता ले कर आए थे या ये सब हमारी ही ईजाद और
धरोहर हैं ,इत्यादि। इस सन्दर्भ में मैंने कई पुरातात्विक ,भाषाई तथा
इतिहास प्रेरित सम्मेलन और पुस्तक प्रोजेक्ट्स भी आयोजित किये ताकि इस
मामले की पड़ताल में गहराई से जाया जा सके। इसके चलते मैं ने अंग्रेज़ों की
उस ‘खोज’ की ओर भी ध्यान दिया जिसके हिसाब से उन्होंने द्रविड़-पहचान को ईजाद किया था- जो असल में १९ वीं शताब्दी के पहले कभी थी ही नहीं और केवल ‘आर्यन थ्योरी’
को मज़बूत जताने के लिए किसी तरह रच दी गयी थी । इस ‘द्रविड़-पहचान’ के
सिद्धांत को प्रासंगिक रहने के लिए “विदेशी आर्य” के सिद्धांत का होना और
उन विदेशियों के कुकृत्यों को सही मानना आवश्यक था।
उस दौरान मेरी नज़र बराबर भारत को दी जा रही चर्च की वित्तीय सहायता
पर भी थी। ‘बेचारे’ बच्चों को खाना-कपडा दे कर, पढाई के अवसर दे कर
“बचाइए” (‘सेव’) जैसे विज्ञापन-अभियान काफी जोर- शोर से प्रचारित किये जा
रहे थे और ये वित्तीय सहयता भी उसी दिशा में मांगी/दी जा रही थी । सच
पूछिए तो मैं भी जब बीस-पच्चीस का था और अमरीका में रह रहा था तब मैं ने भी
दक्षिण भारत में इन अभियानों से प्रेरित हो कर एक बच्चे को प्रायोजित किया
था। लेकिन अपनी भारत यात्राओं के दौरान मुझे अक्सर ऐसा लगा कि जो धन
इकठ्ठा किया जा रहा है, वह जो मुद्दा बताया जा रहा है उसमें कम और लोगों के
धर्मानतरण और उनका मन बदलने में ज़्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है ।
इसके अलावा मैंने अमरीका के प्रबुद्ध
मंडलों, स्वतंत्र विद्वानों,मानवाधिकार संगठनों तथा बुद्धिजीवियों के साथ
भी उनके हिसाब से भारत के ‘अभिषप्त’ होने और इसे उनके ‘सभ्य’ (civilized)
करने के ‘प्रयासों’ के मुद्दे पर भी तमाम बहसों मैं हिस्सा लिया। “कास्ट (जाति) काउ (गौ) और करी (शोरबे दार व्यंजन)”
मेरा ही गढ़ा हुआ मुहावरा है जिसका उद्देश्य था कि उन लोगों की कोशिशों को
उजागर किया जाये जो भारत की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का विचित्र और
सनसनीखेज चित्रण करते हैं और इन समस्याओं को “मानवाधिकार” के मुद्दे के तौर
पर उठाते हैं ।
मैंने तय किया कि इस तरह के तमाम
सिद्धांतों के रचने और प्रचारित करने वाले प्रमुख संगठनों पर नज़र रखी जाये
और उन संगठनों की भी ट्रैकिंग की जाये जो मानवाधिकार-उल्लंघनों के नाम पर
राजनीतिक दबाव बना रहे हैं और अन्ततोगत्वा भारत को दोषी क़रार देने का
कार्य कर रहे हैं ।
मैंने इस प्रकार की वित्तीय सहायता और
इसकी पूरी ‘चेन'(कड़ी) की पड़ताल की। उनके तमाम संस्थानों को बांटी गयी
विज्ञापन सामग्रियों का अध्ययन किया, इनके तमाम सम्मेलनों को, कार्यशालाओं
को और प्रचार प्रकाशनों को भी देखा-समझा । मैंने इस सब के पीछे जो लोग हैं
उनके बारे में और उनके सम्बन्ध कैसे और किन संस्थानों से हैं, इसकी भी
पड़ताल की । जो मुझे पता चला वह हर उस भारतीय को-जो भी देश की अखंडता के लिए
समर्पित है- चौंका देने वाला था ।
मुझे पता चला कि एक बड़े वर्ग के लिए भारतवर्ष एक मुख्य लक्ष्य है । यह एक
ऐसा नेटवर्क (जाल) है जिसमे संस्थानों, व्यक्तियों और चर्चों का समावेश
है और जिसका उद्देश्य भारत के कमज़ोर तबके पर अलहदा पहचान, अलहदा-इतिहास’ और
एक ‘अलहदा-धर्म’ थोपना है।
इस प्रकार की संस्थाओं के गठजोड़ में केवल
चर्च समूह ही नहीं, सरकारी संस्थाएं तथा संबंधित संगठन, व्यक्तिगत प्रबुद्ध
मंडल और बुद्धिजीवी तक शामिल हैं । सतही तौर पर वे सब एक दूसरे से अलग और
स्वतंत्र दिखते हैं लेकिन मैंने पाया है कि असल में उनका तालमेल आपस में
बहुत गहरा है और उनकी गतिविधियाँ अमरीका तथा यूरोप से नियंत्रित की जाती
हैं और वहीँ से उनको काफी वित्तीय सहायता भी प्राप्त होती है । इनके इस
गहरे गठजोड़ और ताल-मेल ने मुझे काफी हद तक प्रभावित भी किया । उनके
सिद्धांत, दस्तावेज़, संकल्प और रणनीतियां बहुत सुलझी हुयी हैं और दलितों/पिछड़ों की मदद करने की आड़ में इनका उद्देश्य भारत की एकता और अखंडता को तोड़ना है।
इन पश्चिमी संस्थानों में कुछ बड़े ओहदों
पर इन दलित/पिछड़ी जाति (जिन्हें तथाकथित रूप से एमपावर (empower) किया जा
रहा है) के कुछ भारतीयों को स्थान दिया गया है – मगर इसका पूरा ताना बाना
पश्चिमी लोगों द्वारा ही सोचा समझा व नियोजित और फण्ड किया गया था ।
हालांकि अब और बहुत से भारतीय लोग और NGOs इन ताक़तों के सहभागी बनाए गए हैं
और इन लोगों को पश्चिम से वित्तीय सहायता और निर्देश मिलते रहते हैं ।
अमरीका तथा यूरोपीय विश्वविद्यालयों में
दक्षिण एशियाई अध्ययन में इस तरह के कार्यकर्ताओं (ऐक्टिविस्ट्स,
activists) को नियमित तौर पर आमंत्रित किया जाता है और उन्हें वहां
प्रमुखता दी जाती है । ये वे ही संस्थान हैं जो खालिस्तानियों, कश्मीरी
उग्रवादियों, माओवादियों तथा इस प्रकार के विध्वंसक तत्वों को आमंत्रित कर
वैचारिक मदद तथा प्रोत्साहन देते रहे हैं ।
इसके चलते मुझे यह संदेह हुआ कि ये भारत
के दलितों/द्रविड़ों तथा अल्पसंख्यकों की सहायता वाली बात कहीं कुछ पश्चिमी
देशों की विदेश नीति का हिस्सा तो नहीं है – प्रत्यक्ष रूप से न सही पर
परोक्ष रूप में सही ! मुझे भारत के अलावा एक भी ऐसे देश की जानकारी नहीं
है जहाँ (भारत की तरह) स्थानीय नियंत्रण/जांच के बिना इतने बड़े स्तर पर
गतिविधियाँ बाहर से संचालित की जा रही हों।
तब मेरी समझ में आया कि भारत में अलगाववादी तकतों के निर्माण में
इतना कुछ खर्च सिर्फ इसलिए किया जा रहा है ताकि यह अलगाववादी विचार
अंततोगत्वा एक बेरोकटोक आतंकवाद में बदल जाए जिससे भारत का राजनीतिक विघटन
संभव हो सके !
शैक्षणिक -जोड़ तोड़ और उससे सम्बंधित/जनित
आतंकवाद श्रीलंका में साफ़ तौर पर सबने देखी ही है – जहाँ कि कृत्रिम गई
अलगाववादिता ने कितने भयावह गृह युद्ध की शक्ल ले ली । ऐसा ही अफ्रीका में
भी हुआ जहाँ विदेशी-नियोजित पहचान संघर्ष (identity crisis आइडेंटिटी
क्राइसिस) ने कितना खतरनाक जातीय/धार्मिक नरसंहार का रूप ले लिया ।
तीन साल पहले ही इस लगातार मेहनत के
फलस्वरूप मेरी शोध सामग्री अच्छी खासी बन चुकी थी । अधिकतर भारतीयों को यह
पता ही नहीं है कि विनाशकारी ताक़तें देश तोड़ने में लगी हैं, और मुझे लगा
कि इस शोध सामग्री को सुव्यवस्थित करना चाहिए और विस्तृत रूप से लोगों को
समझाना चाहिए और इस पर वाद-विवाद के अवसर होने चाहिए। मैंने तमिलनाडु स्थित
अरविंदन नीलकंठन के साथ मिल कर काम करना शुरू किया- जिसमें मेरे विदेशी
शोध-आंकड़े तथा भारत में हो रही सही गतिविधियों के ताल -मेल से काम किया जा
सके।
यह किताब (भारत विखंडन/Breaking India) द्रविड़- आंदोलन तथा दलित पहचान की ऐतिहासिकता पर नज़र डालती है
और साथ ही साथ उन ताक़तों को भी संज्ञान में लेती है जो देश में इन
अलगाववादी पहचानों को बढ़ावा देने में कार्यरत हैं। इस किताब में ऐसे लोगों,
संस्थाओं और उनके इस दिशा में कार्यरत होने के कारणों, क्रियाकलापों और
उनके मूल ध्येय का भी समावेश है। ऐसी शक्तियां ज़्यादातर अमरीका और
यूरोपीय देशों में हैं लेकिन इनकी संख्या भारत में भी बढ़ने लगी है – भारत
में इनके संस्थान इन विदेशी शक्तियों के स्थानीय कार्यालय की तरह काम करते
हैं।
इस किताब का उद्देश्य सनसनी फैलाना या
किसी प्रकार की भविष्यवाणी करना नहीं है । इस किताब का उद्देश्य भारत और
उसके भविष्य के बारे में सार्थक बहस की शुरुआत करना है । भारत के आर्थिक
रूप से सक्षम होने और अंतर्राष्ट्रीय तौर पर उसके रुतबे के बारे में तो
बहुत कुछ लिखा जा चुका है लेकिन उन अंदेशों के बारे में -जो कि इस सफर के
दौरान हो सकते हैं -बहुत कम लिखा गया है, ख़ास तौर पर जब भारत विखंडन की कई
योजनायें (जिनका पर्दाफाश इस पुस्तक में किया गया है) तेजी से आगे बढ़ाई जा
रही हैं । मेरी उम्मीद है कि इस अंतर को यह किताब कुछ हद तक कम करेगी।
अस्वीकरण
राजीव मल्होत्रा एक शोधकर्ता, लेखक और वक्ता हैं । उनसे संपर्क करने के लिए-:
फ़ेसबुक: RajivMalhotra.Official
वेबसाइट: http://www.rajivmalhotra.com/
ट्विटर: @RajivMessage
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