Thursday, May 11, 2017

"जब तक मैं रहूं, शांति रहे” की फितरत है कश्मीर में संघर्ष प्रबंधन की घातक रणनीति

“शांति का अर्थ यह नहीं है कि संघर्ष नहीं है’;शांतिपूर्ण साधनों से संघर्ष को रोकने की क्षमता ही शांति है।”
कश्मीर पर नजरिया
रॉबर्ट ग्रीन कहते हैं: यह कभी नहीं मानना चाहिए कि आपकी अतीत की सफलताएं भविष्य में भी जारी रहेंगी। अतीत की सफलताएं सबसे बड़ी बाधा होती हैं क्योंकि प्रत्येक संघर्ष, प्रत्येक युद्ध अलग होता है और यह नहीं माना जा सकता कि जो अतीत में कारगर रहा था, वही भविष्य में भी काम कर जाएगा। कश्मीर में संघर्ष राजनीतिक नेतृत्व एवं कानून प्रवर्तन एजेंसियों की यथास्थितिवादी मानसिकता पर अड़े रहने का नतीजा है। यह समझना चाहिए कि यह अलग संघर्ष है और इसमें मिला-जुला, विषम, इंतिफदा (आंतरिक संघर्ष) और छद्म युद्ध शामिल है। धारणा, राजनीतिक ध्रुवीकरण, धार्मिक कट्टरपंथ और अनिश्चित वातावरण में जीवित रहने की जंग वाले इस संघर्ष को किसी संकरे नजरिये के साथ नहीं सुलझाया जा सकता। कश्मीर के संघर्ष को सुरक्षा समस्या के चश्मे से देखना घिसा-पिटा विचार है।
जमीनी स्थिति ऐसी है कि सरकार तथा जनता, आतंकवादियों तथा सुरक्षा बलों और चरमपंथियों और उदारवादियों के बीच खूनी संघर्ष हो सकता है। लेकिन यह नहीं दिख रहा है कि कश्मीरी समाज स्वयं चौराहे पर खड़ा है और यह भी स्पष्ट नहीं है कि यह लड़ाई आजादी के लिए है या इस्लामिक राज्य कश्मीर के लिए। यह मानना भूल होगी कि कश्मीर में इस मिले-जुले (हाइब्रिड) युद्ध का लक्ष्य केवल जम्मू-कश्मीर में सीमित है। पाकिस्तान तो कश्मीर को भारत के दूसरे हिस्सों में अस्थिरता लाने के लिए धुरी के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता है।
कमजोर सरकारी संस्थाओं से बढ़ती है अस्थिरता
जो संघर्ष ऐसे मुकाम पर पहुंच सकता है, जहां से कभी वापसी नहीं होगी, उसके बारे में पुराना नजरिया बहुत खराब और घिसा-पिटा है। पुराने नजरिये के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि समय के साथ विचार एकदम जड़ हो गए हैं और नीति निर्माता भविष्य के रास्ते पर तथा बदलते समय में संघर्ष प्रबंधन की रणनीतियों पर नए सिरे से नजर डालने को तैयार ही नहीं हैं। इस रणनीति ने न तो भारत का भला किया है और न ही कश्मीरी जनता का। इसमें एक कड़ी गुम है और वह है दीर्घकालिक अभियान की रणनीति। “हमारे रहते शांति बनी रहे” की मानसिकता के साथ ऐसे संघर्षों से जूझना वास्तव में रणनीति के बगैर काम करना है। आज कश्मीर में स्थिति इतनी विस्फोटक है कि वहां स्थिरता तथा शांति को आतंकवादियों के मुकाबले ‘योजनाकारों, संचालकों और आंदोलनकारियों’ से अधिक खतरा है। कश्मीर को इसी जमात ने बंधक बना रखा है और अभी तक न तो कानून और न ही सरकार उनसे निपट रही है। सरकार ने उन्हें न तो दंड दिया है और न ही रोकने की कोशिश की है। इतने लंबे संघर्ष में योजनाकारों, संचालकों तथा आंदोलनकारियों को पहचानने के लिए धारणा और सामाजिक व्यवहार के विश्लेषण को योजना की प्रक्रिया में जरूर शामिल करना चाहिए। यह संघर्ष प्रबंधन का प्रभावी जरिया है और अस्थिरता एवं विद्रोह के विरुद्ध रणनीति बनाने के लिए ऐसी तकनीकें अपनाना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। सरकारी तंत्र अगर अन्य पक्षों पर काबू कर ले तो आंदोलनकारियों से सुरक्षा बल सख्ती के साथ निपट सकते हैं।
सार्वजनिक उपद्रव करने और आतंकवादियों के लिए भीड़ जुटाने पर किसी तरह का दंड नहीं मिल रहा है; नतीजा यह है कि चरमपंथी बढ़ते जा रहे हैं और उनका प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ता जा रहा है। जमात-ए-इस्लामी लोगों को चरमपंथी बनाने का अपना काम बेरोकटोक कर रहा है। चिंता की बात यह है कि वे दक्षिण पीरपंजाल के नए और अपेक्षाकृत शांत इलाकों को अपना निशाना बना रहे हैं। दक्षिण पीरपंजाल में यह आंदोलन इसीलिए नहीं फैला है क्योंकि वहां सूफी इस्लाम का वर्चस्व है। वहां बाबा गुलाम शाह बादशाह (शाहदरा शरीफ) समेत कई सूफी दरगाहें होने के कारण ऐसा है। जमात का उद्देश्य शांति नहीं बल्कि लोगों को चरमपंथी बनाना है ताकि कश्मीर में निजाम-ए-मुस्तफा (शरिया कानून) का लक्ष्य हासिल किया जा सके। इच्छाशक्ति की कमी और जमात के धन के स्रोत तथा भारत भर में उसकी गतिविधियां बंद करने में नाकामी चरमपंथ को बढ़ावा दे रही है। तंत्र में शामिल जो लोग काले धन को सफेद बनाने वालों के साथ सांठगांठ करते हैं, कश्मीर में उन्हें भी दंड नहीं दिया जा रहा है क्योंकि वहां तंत्र अलगाववादियों के हुक्म का गुलाम बन गया है।
कई खूंखार पाकिस्तानी आतंकवादियों को पकड़ने के लिए जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों और सेना ने खूब मेहनत की है, लेकिन उनमें से एक भी मामले में तार्किक परिणति देखने को नहीं मिली है और किसी को भी देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप में सजा नहीं मिली है। ऐसे में पुलिस तथा अन्य सरकारी संस्थाओं ने मान लिया है कि दोषी खुलेआम घूमते रहेंगे और राष्ट्र की सेवा करने के कारण उनके परिवारों को आतंकवादियों तथा उनके समर्थकों के हाथों सजा झेलनी होगी। जवाबदेही केवल पुलिस की नहीं है बल्कि सरकार के अन्य अंगों की भी है। पाकिस्तानी आतंकवादियों (जिनमें से कुछ को पहले ही रिहा किया जा चुका है) को युद्ध अपराधों के लिए मृत्युदंड क्यों नहीं मिलना चाहिए? सरकार को न्यायपालिका पर दबाव बनाना होगा ताकि सुनवाई तेजी से हो और कड़ा संदेश जाए।
“अच्छे उपायों” से पड़ेगी संघर्ष समाधान की बुनियाद
ऐसे नाजुक जन-केंद्रित संघर्ष में ग्रामीण जनता के विचारों पर नजर रखना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इतिहास बताता है कि माओ के जन संघर्ष से लेकर बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष तक विभिन्न आंदोलनों को नए स्तर तक ग्रामीण जनता ही ले गई है। कश्मीर में 2016 में जो बदलाव दिखा है, उसका असली कारण यह है कि इस बार ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के समर्थन से अस्थिरता उत्पन्न हुई है। यह खुफिया एजेंसियों की प्रारंभिक जिम्मेदारी है और इसमें संभवतः वे पूरी तरह नाकाम रही हैं क्योंकि उन्हों शहरों और कस्बों पर नजर रखी, लेकिन गांवों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। संघर्ष के निशानों, हलचलों तथा भविष्य की स्थितियों का सघन विश्लेषण करने के लिए गहन दृष्टि और अलग किस्म की बौद्धिक संरचना की जरूरत होती है।
यह बात सिद्ध हो चुकी है कि आतंकवादी तथा उन्हें उकसाने वाले लोग जनता में ही होते हैं, वे लोगों की जानकारी तथा समर्थन के साथ ही बने रहते हैं और काम करते हैं। इसलिए उनकी गतिविधियों की जानकारी लोगों को होती है और लोगों के बीच अपने गुप्त सूत्र विकसित कर उन्हें खत्म किया जा सकता है अथवा हाशिये पर डाला जा सकता है। आतंकियों के प्रतिनिधियों और उनके समर्थकों के बीच की कड़ी तोड़ने का यही अकेला रास्ता है। लोगों के बीच उन्हें खतरा और जोखिम महसूस होना चाहिए। ऐसा कहना तो आसान है, लेकिन ऐसी क्षमताएं तैयार करने में बहुत समय लगेगा और इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। जिन पर वे सबसे ज्यादा भरोसा करते हैं, सबसे पहले उनमें ही अपने गुप्त सूत्र तैयार करने चाहिए। पाकिस्तान ने अपनी रणनीति आगे बढ़ाने के लिए लोगों का इस्तेमाल किया है, इसीलिए इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) और कश्मीर में उसके नुमाइंदे आतंकवाद के लिए भीड़ जुटा रहे हैं और प्रशासनिक संस्थाओं पर हमले के लिए उसका इस्तेमाल कर रहे हैं। इस खतरे की दिशा तभी मोड़ी जा सकती है, जब इस रणनीति का तोड़ने के लिए इसी हथियार का इस्तेमाल किया जाए और आतंकवाद से मुकाबले के लिए भीड़ को ताकतवर हथियार बनाया जाए।
एक संघर्ष से ठीक से निपटे तो रुक जाएंगे कई भावी संघर्ष
कश्मीर में संघर्ष से कैसे निपटना चाहिए? हालांकि राजनेताओं में विश्वसनीयता की कमी के कारण यह भरोसा नहीं है कि वे संघर्ष का हल निकाल पाएंगे, लेकिन राजनीतिक संघर्ष समाधान का अच्छा साधन है। इसीलिए संघर्ष से निपटने की प्रक्रिया को राजनीतिक स्वीकार्यता एवं अधिकार दिलाना जरूरी है। कश्मीर जैसे जटिल संघर्ष को निपटाने के लिए जरूरी है कि विभिन्न दबाव समूहों तथा पक्षों से निपटने के तरीकों को सतर्कता के साथ पहचाना जाए। लेकिन दूसरे पक्षों को ऐसा नहीं लगना चाहिए कि सरकारी संस्थाएं कमजोर हैं और वे अलगाववादियेां तथा असंतुष्टों की बेतुकी मांगें भी स्वीकार कर ली जाएंगी। रणनीति तैयार करने के लिए सभी हितधारकों से विस्तृत बात करनी होगी, रचनात्मक विचार लेने होंगे और जमीनी स्थिति भी जाननी होगी।
संघर्षों को हमेशा सरकार की मध्यस्थता वाले समझौतों/संधियों से ही नहीं सुलझाया जाता; संघर्ष समाधान ऐसी प्रक्रिया है, जिसके लिए बहुआयामी प्रयास करने पड़ते हैं। समाधान की जमीन तैयार करने के लिए युवाओं, महिलाओं तथा संघर्ष से जुड़े अन्य पक्षों से बातचीत बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि संवाद नहीं होगा तो समझ भी नहीं होगी। कश्मीर में जनता के मंच द्वारा “वैकल्पिक संघर्ष समाधान” की पहल दिखाई नहीं देतीं। ऐसा नहीं लगना चाहिए कि ये पहल सरकार के कहने पर हो रही हैं बल्कि यह काम निष्ठा और पेशेवर क्षमता वाले ऐसे लोगों को करना चाहिए, जिन्हें संघर्ष की पूरी जानकारी है और जो आगे का रास्ता तैयार कर सकते हैं। कश्मीर घाटी में शांति तभी बहाल हो सकती है, जब लोग ऐसा चाहेंगे या जब शांति बनाए रखने की क्षमता आ जाएगी। शांति के लिए आधार सुरक्षा बलों से तैयार नहीं हो सकता; यह समाज के भीतर से ही आएगा। उसके अलावा राज्य एवं केंद्र सरकार को नीचे दिए गए मसलों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है क्योंकि कश्मीर की शांति एवं स्थिरता के लिए असैन्य खतरों से निपटने में ये बहुत सहायक होंगे।
कश्मीर में ऐसे बहुत लोग हैं, जो वहाबियत या निजाम-ए-मुस्तफा के मत का विस्तार नहीं चाहते। संस्थागत समर्थन नहीं होने के कारण वे मजबूरन चुप रहते हैं और चरमपंथ के विस्तार का विरोध नहीं कर पाते। इसलिए सरकारी संस्थाएं पाकिस्तान के छद्म प्रतिनिधियों और कश्मीर में चरमपंथियों से जन सहभागिता के साथ निपट सकती हैं। लोगों को लोगों के खिलाफ इस्तेमाल करने की रणनीति न्यायोचित युद्ध लड़ने का न्यायोचित तरीका होता है।
केंद्र तथा राज्य सरकार को यह समझना चाहिए कि पुलिस का मनोबल टूटना घातक हो सकता है और इसे रोकने के लिए उन्हें प्रोत्साहन दिए जाने चाहिए, प्रतिकूल माहौल में कानून-व्यवस्था बनाए रखने में उनके योगदान को मान्यता मिलनी चाहिए, प्रशिक्षण मिलना चाहिए और उनका आधुनिकीकरण होना चाहिए। आतंकवादी पुलिसकर्मियों को भी धमकियां दे चुके हैं क्योंकि आईएसआई जानता है कि कश्मीर में उसका उद्देश्य पूरा करने के लिए जम्मू-कश्मीर पुलिस का मनोबल तोड़ना अनिवार्य है क्योंकि उसके पास खुफिया नेटवर्क है, वह आतंकी गुटों के सदस्यों, समर्थकों तथा उनके काम करने के तरीकों को अच्छी तरह से जानती है। इसीलिए अन्य केंद्रीय बलों के मुकाबले राज्य पुलिस को अधिक सशक्त किए जाने की आवश्यकता है ताकि ऐसे विषम समय में भी वह ठीक से काम करती रहे। जो लोग रोज अपना जीवन खतरे में डालते हैं, उन्हें पुरस्कार मिलना ही चाहिए। पुलिसकर्मियों को अपना काम करने में जो मुश्किलें आती हैं, उन्हें देखते हुए मौजूदा भत्ते बहुत कम हैं। उग्रवाद निरोधक - आतंकवाद निरोधक अभियानों में लगी राज्य पुलिस को केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (सीएपीएफ) के बराबर प्रोत्साहन मिलने चाहिए। घाटी में सीएपीएफ की यूनिट बढ़ाने के बजाय अशांति से निपटने के लिए जम्मू-कश्मीर पुलिस, महिला पुलिस तथा विशेष अभियान दल की और भी बटालियनें गठित करना अधिक समझदारी की बात होगी। कुछ लोग पुलिस बल छोड़ जाएंगे और कुछ हथियारों से भी हाथ धोना पड़ेगा, लेकिन अहम बात यह है कि स्थानीय युवा ही आंदोलनकारियों द्वारा पैदा की गई अशांति से बेहतर तरीके से निपट पाएंगे।
यही समय है, जब खुफिया एजेंसियों को संघर्ष वाले क्षेत्र से उन्हीं जातियों के ऐसे लोगों, जो जनता के बीच घुलमिल सकते हैं, को चुनकर अपने ‘विशेष गतिविधि प्रकोष्ठ’ बनाने चाहिए। यह प्रकोष्ठ अभियान चला सकता है और सहायता के लिए अपने भीतर ही उप-प्रकोष्ठ गठित कर सकता है। अधिक जागरूक युवाओं के भीतर अंदरखाना आक्रोश है क्योंकि वे समझते हैं कि कश्मीर को इस्लामिक राज्य अथवा निजाम-ए-मुस्तफा बनाने का उद्देश्य घातक है तथा कश्मीरियत की सांस्कृतिक विरासत को खत्म करने का प्रयास है। ऐसे युवाओं को पहचाना जाना चाहिए और विशेष गतिविधि प्रकोष्ठ अथवा विशेष अभियान यूनिटों में शामिल किया जाना चाहिए। किंतु उन्हें स्थानीय संपर्क के बगैर चुपचाप सुरक्षा प्रतिष्ठान के साथ काम करना सिखाया जाना चाहिए।
शांति बनाए रखना गंभीर जिम्मा है तमाशा नहीं
सरकार की नींद अक्सर तभी खुलती है, जब संकट आता है और स्थिति नाजुक हो जाती है। बिना सोचे समझे प्रतिक्रिया देना अच्छा विचार नहीं है। कश्मीर में संघर्ष कोई तमाशा या जलसा नहीं है; उसके लिए तालमेल, निरंतरता तथा स्थिति के अनुरूप बदलते अभियान की रणनीति चाहिए। रणनीति परिवर्तनशील होनी चाहिए ताकि अभियानों में अप्रत्याशित तत्व बरकरार रहे, जिसे बाहरी दबाव तथा सांगठनिक बाधाओं के कारण थकावट नहीं होने लगे। सुरक्षा बल विभिन्न उद्देश्यों के साथ विभिन्न मंत्रालयों के अधीन काम कर रहे हैं। अभियानों, खुफिया तरीकों तथा असैन्य उपायों को तालमेल के साथ प्रयोग किया जाना चाहिए। अब समय आ गया है कि सरकार तुष्टिकरण की नीति छोड़ दे और नियंत्रण की रणनीति अपनाए। यह रणनीति सभी दिशाओं में काम करने वाली हो क्योंकि खतरा केवल एक दिशा से नहीं आता।
पेशेवरों, समाज विज्ञानियों तथा शिक्षाविदों की आवश्यकता है, जो सरकार के प्रतिक्रिया के उपायों पर घटनाओं के हावी होने से पहले कार्रवाई की योजना बनाने तथा उस पर नजर रखने वाले कार्यबल में शामिल हो सकें। उत्तरी कमान के पूर्व सैन्य कमांडर जनरल डीएस हुड्डा इस कार्यबल का नेतृत्व करने योग्य क्षमतावान व्यक्ति हैं क्योंकि वह नियंत्रण रेखा के दोनों ओर मौजूद योजनाकारों, संचालकों एवं आतंकवादियों तथा आतंकी संगठनों को अच्छी तरह समझते हैं। कश्मीर में संघर्ष की उनकी समझ के कारण घाटी के लोग भी उनका सम्मान करते हैं। अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि कार्य बल को संघर्ष प्रबंधन के उन सिद्धांतों पर विचार करना चाहिए, जिनका प्रयोग कश्मीर को स्थिर बनाने तथा मौजूदा अस्थिरता को खत्म करने में किया जा सकता है। संघर्ष प्रबंधन के निम्नलिखित सिद्धांतों को रचनात्मक तरीके से कश्मीर में इस्तेमाल किया जा सकता हैः-
संघर्ष से बचें - कश्मीर के मामले में संघर्ष से बचाव का मतलब यह नहीं है कि उग्रवाद/आतंकवाद निरोधक अभियान समाप्त कर दिए जाएं। इसका मतलब यह है कि राजनीतिक दल तथा मुख्यधारा से दूर के तत्व घाटी में तनाव फैलाने वाले मसलों को हवा देने से बच सकते हैं। ये मसले गुस्सा बढ़ा सकते हैं या आग में घी डाल सकते हैं अथवा पहले से ही कमजोर कानून व्यवस्था को बिगाड़ सकते हैं। भावनाओं को बेकाबू करने वाले प्रयासों से दूर रहना चाहिए।
दृढ़ता का रुख अपनाएं - सरकार को उग्रवाद/आतंकवाद निरोधक अभियानों तथा पत्थरबाजों एवं राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के दमन के मामलों में किसी तरह का समझौता नहीं करना चाहिए। लेकिन प्रशासन को मानवाधिकारों, धार्मिक तथा सांस्कृतिक भावनाओं के सम्मान के प्रति बेपरवाह नहीं होना चाहिए।
मिलकर काम करें - बातचीत में कोई अछूत नहीं होता। स्थिति स्थिर करने के लिए सबसे पहले सभी राजनीतिक दलों को साथ मिलकर काम करना होगा। अनिश्चितता भरे वातावरण से किसी को लाभ नहीं होगा। इसलिएसबसे कमतर और महत्वहीन पक्षों को भी बातचीत में शामिल करना चाहिए। सहयोग करने का मतलब यह नहीं है कि अलगाववादियों की मांग को स्वीकार कर लिया जाए बल्कि इसका मतलब यह है कि अनूठा तथा रचनात्मक बना जाए और संघर्ष के सभी पक्षों का नजरिया समझा जाए। शिकायतें सुनना भी सहयोग का ही हिस्सा है।
पीछे हटना - इसका मतलब यह नहीं है कि बेतुकी मांगों पर झुका जाए। मतलब यह है कि सभी के नजरिये तथा वास्तविक एवं वैध मांगों को शामिल किया जाए। विकास तथा स्थानीय प्रशासन ग्रामीण कश्मीर में बड़ा मसला हैं। इस मामले में हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठा जा सकता, इसे सुलझाया जाना चाहिए। जन मंच के विचारों का सम्मान करना चाहिए।
समझौता - समझौता केवल तभी हो सकता है, जब दोनों पक्ष हालात स्थिर करने के लिए बातचीत करने और शर्तें मानने को तैयार हों। यह दोतरफा प्रक्रिया है, एकतरफा नहीं।
“अपने विचार बुलंद करें” मुट्ठियां नहीं
कश्मीर की असंतुष्ट जनता विशेषकर युवाओं को यह संदेश देने की जरूरत है कि “अपने विचार बुलंद करें, मुट्ठियां नहीं।” धारणा में, विश्वास, आस्था एवं धर्म की धारणाओं से निकलने वाले तर्कों में अंतर हो सकता है, लेकिन इसे घृणा में परिवर्तित नहीं होना चाहिए। संघर्ष के समाधान से हमेशा हिंसा का अंत नहीं होता बल्कि घृणा एवं धारणाओं में अंतर समाप्त हो जाता है। हम अक्सर विद्रोह करने वाली जनता एवं चरमपंथियों पर संघर्ष के समाधान में बाधा बनने का दोष मढ़ते हैं। लेकिन उनका अड़ियल रुख समस्या नहीं है, समस्या तो यह है कि उनमें से प्रत्येक संघर्ष को अलग नजरिये से देखता है। संघर्ष रणभूमि होता है और कश्मीर भी अलग नहीं है, जहां तस्वीर को अलग चश्मे से देखा जाता है। विभिन्न तरीके आजमाने का विचार सभी हितधारकों को एक साथ लाने के लिए है ताकि वे एक ही चश्मे से समस्या देख सकें। इस तरह सैन्य अभियानों को भी वैसा ही महत्व मिल जाता है, जैसा लोगों के बीच तथा समुदायों के बीच संपर्क का है। किंतु ध्यान देने की बात यह है कि सभी कार्य अभियान की रणनीति के अनुसार ही होने चाहिए और बहुआयामी प्रणाली के अनुकूल होना चाहिए। वे सभी एक दूसरे के पूरक होते हैं। यह समझना महत्वपूर्ण है कि “जब आप बिल्कुल कगार पर पहुंच जाते हैं तो कभी-कभी पीछे हटने से भी काम बन जाता है।” (अज्ञात)
(ब्रिगेडियर नरेंद्र कुमार, एसएम, वीएसएम सेंटर फॉर लैंड वेलफेयर स्टडीज में सीनियर फेलो हैं)

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